१४ सितम्बर बीत चुका है एक और हिन्दी दिवस चला गया लेकिन हमने हासिल क्या किया । शायद कुछ नही फ़िर वही पुराना राग कोई साहित्यकार आया भाषण दिया और फ़िर समापन हो गया हिन्दी दिवस का , आख़िर ऐसा क्यों न हो और आगे भी होता रहेगा क्योंकि हम भारतीय जो ठहरे हमें हर चीज़ चोरी करने की आदत सी हो गयी है जब हमने अपनी राजनितिक व्यवस्था को ही चोरी कर लिया है तो फ़िर भाषा किस खेत की मूली है । हम और इसके लिए उत्तरदायी संस्था भी इस दिशा में कुछ नहीं कर रही है दुनिया में हर देश का अपनी भाषा में अच्छी किताब है लेकिन भारत में इसकी निहायत कमी है हम इंग्लिश किताब पढने में और बोलने में भी फक्र महसूस करते हैं क्योंकि हम कुछ करना नहीं चाहते हैं ठीक है हम भाग्य के सहारे जो ठहरे । हमारा कल्याण भी दूसरा ही करेगा ।
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